ශුද්ධවූ අල් කුර්ආන් අර්ථ කථනය - හින්දි පරිවර්තනය - අසීසුල් හක්කිල් උමරී

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69 : 5

اِنَّ الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِیْنَ هَادُوْا وَالصّٰبِـُٔوْنَ وَالنَّصٰرٰی مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْیَوْمِ الْاٰخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَا خَوْفٌ عَلَیْهِمْ وَلَا هُمْ یَحْزَنُوْنَ ۟

निःसंदेह जो लोग ईमान लाए और जो यहूदी बने, तथा साबी और ईसाई, जो भी अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान लाया और उसने अच्छा कर्म किया, तो उनपर न कोई डर है और न वे शोकाकुल[45] होंगे। info

45. आयत का भावार्थ यह है कि इस्लाम से पहले यहूदी, ईसाई तथा साबी जिन्होंने अपने धर्म को पकड़ रखा है, और उसमें किसी प्रकार का हेरफेर नहीं किया, अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखा और सत्कर्म किए उनको कोई भय और चिंता नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार की आयत सूरतुल-बक़रा (62) में भी आई है, जिसके विषय में आता है कि कुछ लोगों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से प्रश्न किया कि उन लोगों का क्या होगा जो अपने धर्म पर स्थित थे और मर गए? इसी पर यह आयत उतरी। परंतु अब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और आपके लाए धर्म पर ईमान लाना अनिवार्य है, इसके बिना मोक्ष (नजात) नहीं मिल सकता।

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