ترجمهٔ معانی قرآن کریم - ترجمه‌ى هندى - عزیزالحق العمری

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23 : 42

ذٰلِكَ الَّذِیْ یُبَشِّرُ اللّٰهُ عِبَادَهُ الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ؕ— قُلْ لَّاۤ اَسْـَٔلُكُمْ عَلَیْهِ اَجْرًا اِلَّا الْمَوَدَّةَ فِی الْقُرْبٰی ؕ— وَمَنْ یَّقْتَرِفْ حَسَنَةً نَّزِدْ لَهٗ فِیْهَا حُسْنًا ؕ— اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ شَكُوْرٌ ۟

यही वह चीज़ है, जिसकी शुभ-सूचना अल्लाह अपने उन बंदों को देता है, जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कार्य किए। आप कह दें : मैं इसपर तुमसे कोई पारिश्रमिक नहीं माँगता, रिश्तेदारी के कारण प्रेम-भाव के सिवा।[21] और जो कोई नेकी कमाएगा, हम उसके लिए उसमें अच्छाई की अभिवृद्धि करेंगे। निश्चय अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, अति गुण-ग्राहक है। info

21. भावार्थ यह है कि मक्का वासियो! यदि तुम सत्धर्म पर ईमान नहीं लाते हो, तो मुझे इसका प्रचार तो करने दो। मुझपर अत्याचार न करो। तुम सभी मेरे संबंधी हो। इसलिए मेरे साथ प्रेम का व्यवहार करो। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4818)

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24 : 42

اَمْ یَقُوْلُوْنَ افْتَرٰی عَلَی اللّٰهِ كَذِبًا ۚ— فَاِنْ یَّشَاِ اللّٰهُ یَخْتِمْ عَلٰی قَلْبِكَ ؕ— وَیَمْحُ اللّٰهُ الْبَاطِلَ وَیُحِقُّ الْحَقَّ بِكَلِمٰتِهٖ ؕ— اِنَّهٗ عَلِیْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ ۟

या वे कहते हैं कि उसने अल्लाह पर झूठ गढ़ लिया है? तो यदि अल्लाह चाहे, तो आपके दिल पर मुहर लगा दे।[22] और अल्लाह असत्य को मिटा देता है और सत्य को अपने शब्दों (प्रमाणों) द्वारा साबित कर देता है। निश्चय वह सीनों (दिलों) की बातों को ख़ूब जानने वाला है। info

22. अर्थ यह है कि ऐ नबी! इन्होंने आपको अपने जैसा समझ लिया है, जो अपने स्वार्थ के लिए झूठ का सहारा लेते हैं। किंतु अल्लाह ने आपके दिल पर मुहर नहीं लगाई है जैसे इनके दिलों पर लगा रखी है।

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25 : 42

وَهُوَ الَّذِیْ یَقْبَلُ التَّوْبَةَ عَنْ عِبَادِهٖ وَیَعْفُوْا عَنِ السَّیِّاٰتِ وَیَعْلَمُ مَا تَفْعَلُوْنَ ۟ۙ

वही है, जो अपने बंदों की तौबा क़बूल करता है और बुराइयों[23] को माफ़ करता है और जो कुछ तुम करते हो, उसे जानता है। info

23. तौबा का अर्थ है अपने पाप पर लज्जित होना, फिर उसे न करने का संकल्प लेना। ह़दीस में है कि जब बंदा अपना पाप स्वीकार कर लेता है और फिर तौबा करता है, तो अल्लाह उसे क्षमा कर देता है। (सह़ीह बुख़ारी : 4141, सह़ीह़ मुस्लिम : 2770)

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26 : 42

وَیَسْتَجِیْبُ الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَیَزِیْدُهُمْ مِّنْ فَضْلِهٖ ؕ— وَالْكٰفِرُوْنَ لَهُمْ عَذَابٌ شَدِیْدٌ ۟

और उन लोगों की प्रार्थना स्वीकार करता है, जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कार्य किए तथा उन्हें अपने अनुग्रह से अधिक प्रदान करता है और जो काफ़िर हैं उनके लिए कड़ी यातना है। info
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27 : 42

وَلَوْ بَسَطَ اللّٰهُ الرِّزْقَ لِعِبَادِهٖ لَبَغَوْا فِی الْاَرْضِ وَلٰكِنْ یُّنَزِّلُ بِقَدَرٍ مَّا یَشَآءُ ؕ— اِنَّهٗ بِعِبَادِهٖ خَبِیْرٌ بَصِیْرٌ ۟

और यदि अल्लाह अपने (सब) बंदों के लिए रोज़ी कुशादा कर देता, तो वे धरती में सरकशी[24] करते। परंतु वह एक अनुमान से उतारता है, जितना चाहता है। निश्चय वह अपने बंदों से भली-भाँति अवगत, भली-भाँति देखने वाला है। info

24. अर्थात यदि अल्लाह सभी को संपन्न बना देता, तो धरती में अवज्ञा और अत्याचार होने लगता और कोई किसी के आधीन न रहता।

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28 : 42

وَهُوَ الَّذِیْ یُنَزِّلُ الْغَیْثَ مِنْ بَعْدِ مَا قَنَطُوْا وَیَنْشُرُ رَحْمَتَهٗ ؕ— وَهُوَ الْوَلِیُّ الْحَمِیْدُ ۟

तथा वही है जो बारिश बरसाता है, इसके बाद कि वे निराश हो चुके होते हैं और अपनी दया फैला[25] देता है और वही संरक्षक, सराहनीय है। info

25. इस आयत में वर्षा को अल्लाह की दया कहा गया है। क्यों कि इससे धरती में उपज होती है, जो अल्लाह के अधिकार में है। इसे नक्षत्रों का प्रभाव मानना शिर्क है।

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29 : 42

وَمِنْ اٰیٰتِهٖ خَلْقُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَثَّ فِیْهِمَا مِنْ دَآبَّةٍ ؕ— وَهُوَ عَلٰی جَمْعِهِمْ اِذَا یَشَآءُ قَدِیْرٌ ۟۠

तथा उसकी निशानियों में से आकाशों और धरती का पैदा करना है और वे प्राणी जो उसने उन दोनों में फैला रखे हैं, और वह उन्हें इकट्ठा करने में जब चाहे पूर्ण सक्षम है। info
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30 : 42

وَمَاۤ اَصَابَكُمْ مِّنْ مُّصِیْبَةٍ فَبِمَا كَسَبَتْ اَیْدِیْكُمْ وَیَعْفُوْا عَنْ كَثِیْرٍ ۟ؕ

तथा जो भी विपत्ति तुम्हें पहुँची, वह उसके कारण है जो तुम्हारे हाथों ने कमाया। तथा वह बहुत-सी चीज़ों को क्षमा कर देता है।[26] info

26. देखिए : सूरत फ़ातिर, आयत : 45

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31 : 42

وَمَاۤ اَنْتُمْ بِمُعْجِزِیْنَ فِی الْاَرْضِ ۖۚ— وَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ وَّلِیٍّ وَّلَا نَصِیْرٍ ۟

और तुम धरती में (अल्लाह को) विवश करने वाले नहीं हो और न अल्लाह के सिवा तुम्हारा कोई संरक्षक है और न कोई सहायक। info
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